Friday, June 27, 2008

काव्य दिया तुमने

देव ने पूछा -
करते हो विश्वास
रखते हो श्रद्धा अपार,
चढाते हो पुष्प नित
सम्पति भी हो उदार।
नियमित संकल्प साध
भूल कर सब ऋतु प्रहार ,
बोलो किस आशा से
रहे तुम पथ बुहार ।
कहो वत्स !
निर्मल सेवाओं का पाया क्या प्रतिफल ?

खोने और पाने का प्रश्न सदा मरता है ,
निर्मल विश्वास जहाँ शुचिता संग बहता है ।
हारतें हैं तर्क सभी श्रधा के सम्मुख ,
पाने का प्रश्न सदा स्वारथ - हित पलता है । ।

वाणी रही मौन
छलक पड़े आंसू संवत- स्वर बोले !
तुमने दिया लक्ष्य
मार्ग दिया तुमने
तुमने दिए पर
आकाश दिया तुमने
तुमने दी दृष्टि
प्रकाश दिया तुमने
तुमने दी करुना
आधार दिया तुमने
आखों में सागर , धरती हृदय में
जीवन को हे कवि ! काव्य दिया तुमने ।।

देवता होने की पहली शर्त !


सच है
पत्थर कठोर होता है
इसीलिए वह युगों तक
देवत्व को जीता है
संवेदना हीन !
इसीलिए वह स्मित -मुख धरता है
और युगों तक
निष्कलंकित रहता है
संज्ञा - शून्य!
इसीलिए वह विष-अमृत ग्रहता है
और युगों तक
अमरत्व को वरता है

मोम के देवता
आंच मिलते ही पिघल जातें हैं
नमी मिलते ही कठोर
स्पर्श मिलते ही बिखर जातें हैं
अप्नत्व मिलते ही विभोर
असंख्य रेखाएं खिंच जातीं हैं
उनके चेहरों पर
तीखे नख प्रहारों से
बिगड़ जाता है उनका आकार
और इसीलिए
देवता होने की
पहली शर्त है
पत्थर होना !

चलो ! मेरे पुनर्जन्म तक

तुमने मारा है
डुबाकर

अनंत में बहुत गहरे
बांधकर द्रवित दृगों में
लगाकर
पलकों के पहरे
मारा है अन्तर -पशु को मेरे ।

तुमने किया जो अकस्मात यह छल
नव जागृत निर्बल मन हुआ विकल
सुनो ! अब वारो दंड
लेकर शपथ अखंड
चलो ! अब साथ -साथ थाम हाथ
मेरे ही अनवरत ।

छुपाकर अन्य पशुओं से
खड़े जो थाह में निशि भर
बचाकर तड़ित से , घन से
अड़े जो राह में दुस्तर

जगा कर लौ निशा तक
निभाकर अंध -तम से उषा तक
चलो ! मेरे मनुष्य होने तक
चलो ! मेरे पुनर्जन्म तक । ।

स्व - पथ चुनना है !

जब- जब प्रहार हुए
कठोरतर होता रहा मैं
और मेरे अन्दर का पहाड़
दरकता रहा कहीं
भीत सम प्रतिपल ।

जब -जब फुहार पड़ी नम
संकुचित होता रहा मैं
और मेरे अन्दर का लावा
पिघलता रहा कहीं
मोम सम प्रतिपल ।

प्रहार और फुहार
दोनों लिए नवजीवन अंश
रीते घट भरना है
स्व -पथ चुनना है
टुकड़े-टुकड़े बिखरने का
या जलते -जलते पिघलने का । ।

तुम्हारी याद


मेरे अंतस को छूती
वह धूप जाड़े की
जो सज्जित ड्राईंग रूम के कोने में
ठिठुरते निस्तेज रबड़ प्लांट को
सहला जाती है आहिस्ता
झांक कर झीने झरोंखो से
और
दे जाती है ललक
कुछ और जीने की
तुम्हारी याद ।

भ्रम ही सही

ज़रूरी है वह नितांत
जो दे उष्मा
भरे उमंग
करे उर्जा संचरण जीवन में

ज़रूरी है जैसे
'आखिरी पत्ते' का भ्रम अन्तिम पलों में
तिनके के सहारे का भ्रम
ज़रूरी है डूबते को जैसे

ज़रूरी है जैसे
लैंप पोस्ट से आंच का भ्रम
फुटपाथों के लिए जमती रातों में
चाँद के ' मामा ' होने का भ्रम ज़रूरी है
बचपन को जैसे

जैसे ज़रूरी है
तुम्हारे अपने होने का भ्रम
मेरे जीने के लिए
चाँद को पा लेने का भ्रम
ज़रूरी है चकोर को जैसे
भ्रम ही सही
ज़रूरी है वह नितांत । ।

सम्भव है !

तुम्हारे अपनों में
हो मेरी पहचान धुंधली , अस्पष्ट
सम्भव है !
तुम्हारे सपनों में
हो मेरी सूरत अनजानी , अनचाही
सम्भव है !

पर साथी !
जीवन पथ तुम्हारे
होंगे कंटकित कभी
मेरे पाँव बढ़ेंगे
तुम्हारे साथ सबसे पहले ।
जीवन वन तुम्हारे
होंगे यदि निर्जन कहीं
मेरे हाथ छेडेंगें सृजन के साज़
तुम्हारे लिए सबसे पहले ।

और सहपथिक !
चहुन्दिशि फूलेगी सरसों जब
खुशियाँ भरेंगी तुम्हे अंक में
कल्पनाएँ होंगी सहज साकार
सजेंगें स्मित पुष्प पथ में
तुम्हारे अपनों की बढती भीड़ में
खो जाऊंगा
किसी अदृश्य धुंधलके में
और अस्पष्ट होकर
सम्भव है !

अर्पण


जीवन की कवितायें
उसको अर्पित
जिसने मुझे मोम बनाया
उनको भी सादर - सप्रेम
जिनके दंशों ने
कविताओं में आह भर दी ।

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