Friday, August 15, 2008

'प्रेम पंछी' ! प्रतिफलित आराधना हो

( यह कविता है या नहीं, मालूम नहीं । यह कविता हो, इसे ज़रूरी भी नहीं समझता। उसमें बात ही कुछ ऐसी थी । निश्छल प्रेम से प्रतीक्षा करता मिला था 'वह' प्रेयसी का, जिसे आना ही नहीं था । मैंने पूछा ! क्या उसने कहा है आने के लिए ? उत्तर था............... नहीं । क्या तुमने कहा है आने के लिए उससे ? ....................... नहीं। यह तो मुर्खता है । हंसा था वह ....... । ............. तीन वर्ष पहले ........ आज ही के दिन ......... कहा था उसने आने के लिए । .............. मैं जानता हूँ आएगी वह ........... आज ही के दिन..... कभी । झकझोर दिया था उसके विश्वास ने । ....................... और बह उठी फ़िर 'यह '। )
शुक्रिया ओ प्रेम पंछी ! शहर में मेरे तुम्हारा शुक्रिया ।

आ गए तुम मित्रता और प्रेम का उन्वान बनकर

देख वह संकल्पधर्मा ! शांत संतापी सजल दृग
हृदय में अपने संजोये प्रिय-मिलन की तीव्र इच्छा ।
निहारता अपलक लिए कर -पुष्प , प्रिय नित आगमन मग
आज चिर -स्मृति धरा पर , कर रहा वह फ़िर प्रतीक्षा ॥

वह करेगा अब प्रतीक्षा शपथ का अवलम्ब लेकर
सूर्य के नव - आगमन से , सूर्य के अन्तिम गमन तक ।
वह करेगा दृढ़ प्रतीक्षा सत्य का अवलम्ब लेकर
प्यास के पहले चरण से आस के अन्तिम मरण तक ॥

आज निजमन हृदय में लगता प्रवासी
आज स्वर्नाकाश भी कला धुआं सा ।
आज सतरंगी सवेरा लग रहा बासी
आज प्रिय - पथ लग रहा अँधा - कुआँ सा । ।

आज अनगिन पुष्प पर सुरभित न कोई
आज कोलाहल रहित लगती दिशाएं ।
आज अगडित रूप पर प्रमुदित न कोई
आज स्पंदन रहित लगती व्यथाएं ॥

'मित्र' जिसकी आत्मा गंगा सरीखी
करे निर्मल राह के चेतन -अचेतन ।
निष्काम उसके रूप को मन में संजोये
रचेगा सबसे अलग इतिहास नूतन ॥

ह्रदय पानी, है नहीं चंचल मगर
कल्पनाओं से भरी आँखें समंदर ।
घूमते मस्तिष्क में स्मृत-भंवर
भर रहा है टीस उर में आज अम्बर ॥

ओ पखेरू प्रेम के ! है शक्ति तुझमे
जगा दे तू दया करुणा प्रेम उर में .......
राह ऐसी दे कि क्षण भर को सही
आस के अन्तिम मरण तक भी .........
प्रतिफलित आराधना हो आज उसकी
धर गुलाबी रूप आए चाह उसकी ..........
और पुकारे नाम ले नेपथ्य से
नव तरंगित ज्वार जागे हृदय- नद में........
और हो जाएँ सुमन सुरभित सभी
एक हलचल सी मचे उनके अतलमन में ........
और उठा कर सब पंखुडियाँ अश्रुपूरित भूमि से
वह सहेजे प्रेम से अपने युगल -कर में .........
और चलें ऐसी फुहारें आसुओं की मौन -मद्धम
घिर उठे सावन - घटा इस मरुथली में ॥

शुक्रिया , ओ प्रेमपंछी ! तुम्हारा शुक्रिया
मैं रहूँगा ऋणी तेरा ॥ ॥




Tuesday, August 5, 2008

साथ क्या मेरे जलोगे?

शूल - पथ का पथिक हूँ, तुम साथ क्या मेरे चलोगे ?
मैं व्यथा का अश्रुजल, तुम साथ क्या मेरे बहोगे ?

दौर है आकाश के यशगान का वे स्वर मिलालें
वे हवा के साथ होकर तम-घटा के गीत गा लें
मैं अकिंचन दीप हूँ, तुम साथ क्या मेरे जलोगे ?

जल रहीं सारी दिशाएं वे सुनहली शाम कहलें
वे हमारी बेबसी को आत्म गौरव गान कहलें
मैं पिघलती हिम-शिला, तुम साथ क्या मेरे गलोगे ?

मैं समंदर से निकलकर शून्य होना चाहता हूँ
मैं अधिकतम से सिमटकर न्यून होना चाहता हूँ
द्वेष का अवसान हूँ, तुम साथ क्या मेरे ढलोगे ?

Saturday, August 2, 2008

आत्म मंथन

यह हुआ क्या ?
देव -पथ पर मनुज बनने को चला पशु
डर गया क्यूँ आज उन अभिवादनों से
कि जो देते थे सुख - अनुभूति
क्यों असंभव हो रहा स्वीकार करना
आज निज वंदन
जो भरते थे हृदय में गर्व अतिशय॥

हाय ! यह कैसी परीक्षा ?
ग्रहण यदि करता है 'वह' अभिवादनों को
झुकाकर निज शीश, निज दृग से
लगता है कि मानो 'वह' समाता जा रहा है
गर्भ तक भीतर धरा के ।
पाप- पुण्यो की सभी प्रस्तर शिलाएं
जम रही हैं बक्ष पर उसके
बहुत भारी परत पर परत बनकर ।
वेदना के तंतु उसको बांधते हैं
गाँठ देकर सख्त 'उसके' हृदय तलसे॥

और यह कैसी विवशता ?
ग्रहण यदि करता है 'वह' अभिनन्दनो को
उठाकर निज शीश, निज दृग से
देखता 'वह' है नही सम्मुख कोई भी
सब खड़े हैं शून्य में
दर्पण खुला उनके हृदय का
दीखता स्पष्ट नभ में ।
देखकर प्रतिरूप अपना काँप वह जाता
कि उफ़ !
कितना घृणित विकृत भयावह !
उभर आए हैं अनेको घाव रक्तिम देह पर
बह रहा जिनसे निरंतर
द्वेष रूपी पीप मज्जा स्वेद
मुख पर निकल आयीं हैं अनेकों
नालियाँ आड़ी व तिरछी
घृणा रूपी रक्त जिनसे बह रहा काला
असीमित खेद !
असह्य !
डर गया 'वह' और करके बंद आँखे
पुनः जा बैठा अकेला
अंध कालिख से भरी गहरी गुफा में
आत्म मंथन का नया संकल्प लेकर ॥