तुमने मारा है
डुबाकर
अनंत में बहुत गहरे
बांधकर द्रवित दृगों में
लगाकर
पलकों के पहरे
मारा है अन्तर -पशु को मेरे ।
तुमने किया जो अकस्मात यह छल
नव जागृत निर्बल मन हुआ विकल
सुनो ! अब वारो दंड
लेकर शपथ अखंड
चलो ! अब साथ -साथ थाम हाथ
मेरे ही अनवरत ।
छुपाकर अन्य पशुओं से
खड़े जो थाह में निशि भर
बचाकर तड़ित से , घन से
अड़े जो राह में दुस्तर
जगा कर लौ निशा तक
निभाकर अंध -तम से उषा तक
चलो ! मेरे मनुष्य होने तक
चलो ! मेरे पुनर्जन्म तक । ।
चंद ग़ज़लें -
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चंद ग़ज़लें -
१ बेवज़ह धूप में हम चल पड़े घर से क्यूँकर ,
हर दफा दर को शिकायत रहे सर से क्यूँकर ।
आंसुओं से कोई पत्थर नहीं पिघला करता,
दिल को समझाने में यह...
13 years ago
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