चंद ग़ज़लें -
१ बेवज़ह धूप में हम चल पड़े घर से क्यूँकर ,
हर दफा दर को शिकायत रहे सर से क्यूँकर ।
आंसुओं से कोई पत्थर नहीं पिघला करता,
दिल को समझाने में यह लग गए अरसे क्यूँकर ।
दर्द तो साथ निभाते ही रहे चोटों का,
अपनी अश्कों से शिकायत है ये बरसे क्यूँकर।
राहतें ओस की सूरत में मिला करतीं हैं,
अपनी होठों से शिकायत है ये तरसे क्यूँकर।
२ छाई घटा जो शाम को यादें जगा गयी,
सोये समन्दरों में भी हलचल मचा गयी।
तूफान हज़ार बार उठे और उठे खूब,
दास्ताँ -ये -इश्क इतनी हवाओं को भा गयी।
खुद को जला के हमने दी शम्मा को रौशनी ,
यूँ ज़िन्दगी रातों से अदावत निभा गई ।
कितना भी दागदार सही फिर भी चाँद है,
रंगत कुछ ऐसी प्यार की उसमें समा गयी।
पलकों की सभी कोशिशें नाकाम ही रहीं ,
जाने क्यूँ आज आसुओं में बाढ़ आ गयी।
मझधार सी रातें या किनारों सी हो सुबहें ,
हर लहर ज़िन्दगी को सलीके सिखा गयी।
आखिर को विनय शील ही पागल हुआ साबित,
दिल की जहाँ दिमाग से दो बात हो गयी।
१ बेवज़ह धूप में हम चल पड़े घर से क्यूँकर ,
हर दफा दर को शिकायत रहे सर से क्यूँकर ।
आंसुओं से कोई पत्थर नहीं पिघला करता,
दिल को समझाने में यह लग गए अरसे क्यूँकर ।
दर्द तो साथ निभाते ही रहे चोटों का,
अपनी अश्कों से शिकायत है ये बरसे क्यूँकर।
राहतें ओस की सूरत में मिला करतीं हैं,
अपनी होठों से शिकायत है ये तरसे क्यूँकर।
२ छाई घटा जो शाम को यादें जगा गयी,
सोये समन्दरों में भी हलचल मचा गयी।
तूफान हज़ार बार उठे और उठे खूब,
दास्ताँ -ये -इश्क इतनी हवाओं को भा गयी।
खुद को जला के हमने दी शम्मा को रौशनी ,
यूँ ज़िन्दगी रातों से अदावत निभा गई ।
कितना भी दागदार सही फिर भी चाँद है,
रंगत कुछ ऐसी प्यार की उसमें समा गयी।
पलकों की सभी कोशिशें नाकाम ही रहीं ,
जाने क्यूँ आज आसुओं में बाढ़ आ गयी।
मझधार सी रातें या किनारों सी हो सुबहें ,
हर लहर ज़िन्दगी को सलीके सिखा गयी।
आखिर को विनय शील ही पागल हुआ साबित,
दिल की जहाँ दिमाग से दो बात हो गयी।