Saturday, August 2, 2008

आत्म मंथन

यह हुआ क्या ?
देव -पथ पर मनुज बनने को चला पशु
डर गया क्यूँ आज उन अभिवादनों से
कि जो देते थे सुख - अनुभूति
क्यों असंभव हो रहा स्वीकार करना
आज निज वंदन
जो भरते थे हृदय में गर्व अतिशय॥

हाय ! यह कैसी परीक्षा ?
ग्रहण यदि करता है 'वह' अभिवादनों को
झुकाकर निज शीश, निज दृग से
लगता है कि मानो 'वह' समाता जा रहा है
गर्भ तक भीतर धरा के ।
पाप- पुण्यो की सभी प्रस्तर शिलाएं
जम रही हैं बक्ष पर उसके
बहुत भारी परत पर परत बनकर ।
वेदना के तंतु उसको बांधते हैं
गाँठ देकर सख्त 'उसके' हृदय तलसे॥

और यह कैसी विवशता ?
ग्रहण यदि करता है 'वह' अभिनन्दनो को
उठाकर निज शीश, निज दृग से
देखता 'वह' है नही सम्मुख कोई भी
सब खड़े हैं शून्य में
दर्पण खुला उनके हृदय का
दीखता स्पष्ट नभ में ।
देखकर प्रतिरूप अपना काँप वह जाता
कि उफ़ !
कितना घृणित विकृत भयावह !
उभर आए हैं अनेको घाव रक्तिम देह पर
बह रहा जिनसे निरंतर
द्वेष रूपी पीप मज्जा स्वेद
मुख पर निकल आयीं हैं अनेकों
नालियाँ आड़ी व तिरछी
घृणा रूपी रक्त जिनसे बह रहा काला
असीमित खेद !
असह्य !
डर गया 'वह' और करके बंद आँखे
पुनः जा बैठा अकेला
अंध कालिख से भरी गहरी गुफा में
आत्म मंथन का नया संकल्प लेकर ॥

6 comments:

Vinay said...

पाप- पुण्यो की सभी प्रस्तर शिलाएं
जम रही हैं बक्ष पर उसके
बहुत भारी परत पर परत बनकर ।


सुन्दर प्रस्तुतिकरण!

Internet Existence said...

गुरू गंभीर आत्‍म मंथन पर अति रोचक

डा. अमर कुमार said...

.

अच्छा है..बहुत अच्छे हैं यह भाव ।
अब अधिक तारीफ़ भी ठीक नहीं न !

36solutions said...

स्‍वागत

डा ’मणि said...

अच्छी कविता के लए बहुत बधाई मित्र ...

ब्लॉग्स के नये साथियों मे आपका स्वागत है

चलिए परिचय की एक कविता भेज रहा हूँ देखिएगा

चाहता हूँ ........
एक ताजी गंध भर दूँ
इन हवाओं में.....

तोड़ लूँ
इस आम्र वन के
ये अनूठे बौर
पके महुए
आज मुट्ठी में
भरूं कुछ और
दूँ सुना
कोई सुवासित श्लोक फ़िर
मन की सभाओं में

आज प्राणों में उतारूँ
एक उजला गीत
भावनाओं में बिखेरूं
चित्रमय संगीत
खिलखिलाते फूल वाले
छंद भर दूँ
मृत हवाओं मैं .....................

आपकी सक्रिय प्रतिक्रिया कॅया इंतज़ार करूँगा
डॉ उदय 'मणि ' कौशिक
http://mainsamayhun.blogspot.com
umkaushik@gmail.com
094142-60806
684 महावीर नगर ईई
कोटा, राजस्थान

विजय-राज चौहान said...

नए चिठ्ठे के लिए बधाई हो !
आशा रखता हूँ कि आप भविष्य में भी इसी प्रकार लिखते रहे |
आपका
विजय-राज चौहान (गजब)
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